कविता!
सुन, तू मत ढो, अपने कंधों पर उसे।
जो झूठ है,
मत गवाही दे उसकी
सपने झूठ के, शुभ नहीं।
छंद के अपने नियमों तले
मज़बूर नहीं तू ।
फरेब से उसके, तू निकल बाहर,
और मुझे भी खींच इस कूप से परे।
कविता !
साहस ले और लिख अपनी जगह जनता।।
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