अफीम की नदी
पतवार सपनों की,
ज़िन्दगी की नाव
न अंत न आदि को
बहती हुई,
मुंदी आँख से
सावन का हरा
रूप में छिपा जाती
तुम,
ज़िन्दगी की किताब को रंगते
सपने,
आसन कर देते है
मरना बेमौत,
नाज़ से पाले
कुत्ते जैसा .
सच
आग के दरिया सा
नसों में बहता,
सच खुलता है
खुली आँखों में
देखते
चेहरे पर चढ़े चहरे ,
गुलाबी लबों पर लिपटी,
दुआ तमाम
क़त्ल की मेरे,
सच
ख़ुदकुशी के सिवा कुछ भी नहीं
सवाल गैरमुनासिब ही सही
फिर भी
वजूद से लिपटा -
सपने और सच में ज़रूरी क्या है.
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