तुम नाराज़ हो, उठने लगती,
समेट तुम्हे बाहों के घेरे
सुनाता
कई बार कहानी वही
नायिका जिसकी, तेरी परछाई .
बंद मुट्ठी में लाता,
थोड़े बादल..थोड़ी बारिश..
मलता होंठो पे तुम्हारे थोड़ी बर्फ
बाल कर गीले, छू लेता
खा लेता थोड़ी डांट तेरी .
सारी रात
साथ बुनते गीत
सारे दिन तुम अलसाती .
पढ़ते हम
कम किताबें-
बांया मैं, दांया पन्ना तुम .
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आज
जब किताबों की
की चिंदी,
अधूरे ख्वाबो पे नहीं आया रोना...
kucch log viyog ko itne sundar dhang se prastut karte hain ki shringar ka sukh, viyog ke dukh ke bina adhoora jaan padta hai ya fir yun kahein ki bauna jaan padta hai.....yeh kavita bhi kucch aisi hi hai...dhanyavaad..is kavita ko lekhnibaddha karne ke liya...
ReplyDeleteaabhar.........
ReplyDeleteitna samay diya pahle padhne par fir vishleshan par......
shukriya
man ko chhu gayi ye kavita.......
ReplyDeletemarmsparshi