Wednesday, January 27, 2021

1. 

कुछ भी नहीं था .

इक शिकायत रही, कभी कुछ न रहने की.

कुछ नहीं था, फिर 

 वह लगा छीनने,सब, 

जो घुल मिल गए थे हममें

एक एक करके,

ख्वाब, आज़ादी, हक़ और बराबरी .  


2. 

आश्चर्य के, फिर दैन्य के, गीत लिखे हमने 

भरी फिर, विरोध की हुंकार। 

अब बारी थी आवाज़ की, 

आवाज़ छीने जाने की 

हमारे शब्दों पर हमारे दृश्यों पर, हमारे चित्रों पर

कर गूंगा हमें,

उसके गीत गाये जाने की .


3. 

यह दिन थे जब हम मौन हुए 

और साफ़, बिलकुल साफ़ गूंजने लगा उसका अट्ठास. 

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