१.
गोल है
गोल है
धरती, निश्चय ही .
हर राह
वहीँ ले जाती है ,
जिसके आगे कोई राह नहीं
२.
२.
मुश्किल है कहना
तुम्हारी आवाज़ से
लगी ठोकर
या
भरम टुटा
चलते रहने का .
३.
३.
- रौशनी का पीछा,
- कहीं दूर तलक
- लाई है..
- वक़्त पीठ पर मेरे
- मुझको लिए चलता है..........
अद्भुत, रोचक और भावपूर्ण...
ReplyDelete"जिसके आगे कोई राह नहीं .... "
सराहनीय रचना...
thank you manish.
ReplyDeleteआद रजनीकांत जी ,
ReplyDeleteआज अचानक आपके ब्लॉग पे आना हुआ .....
नीचे देखा आप क्षणिकायें भी लिखते हैं ....
आपसे अनुरोध है अपनी कुछ (१०,१२) क्षणिकायें मुझे 'सरस्वती-सुमन' पत्रिका के लिए दें ..जो की क्षणिका विशेषांक निकल रहा है ....
यह अंक संग्रहणीय होगा ....
साथ में अपना संक्षिप्त परिचय और तस्वीर भी ....
इन्तजार रहेगा ....
harkirathaqeer@gmail.com
"वक़्त पीठ पर मेरे, मुझको लिए चलता है..."
ReplyDeleteरोचक विचार....