शुरू के चन्द चक्कर
लोग कहते हैं, हैं
मुश्किल ।
हर सुबह ही , बस
दुश्वारी
दिन कट जाता है ।
कुछेक चक्कर बाद
पाँव खुदबखुद खींचते खुद को
दिन ढो लेता है.
सुबह की दौड़ औ ज़िन्दगी
धकेल रहे खुद को
चंद चक्कर बाद
रुक जाता हूँ
रोज़
मशीनी दौड़ से आजिज़ आ,
बेशर्म ज़िन्दगी
हर सुबह
वही तमाशा करती ॥
रोज़ ही दौड़ने जाता हूँ
मैं ॥
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