Tuesday, April 19, 2011

सुलग सुलग कर जलना
जलते रहना और सुलगना
कितना कठिन है
कितना मुश्किल

मनोवेग की आंधी आकर
लप लप दे चिता अग्नि को
निजात्म का जलना अनवर

धुन्धुआना निज/धीरे धीरे
कितना कठिन है
कितना मुश्किल

प्रखर वह्नी धमनी से परे
धरे रूप विकल अग्नि की
आतुर
भष्म करे भूत को

तुम तक पहुचे न तूफान यह
कितना कठिन है
कितना मुश्किल

जलकर खत्म/ यही नियति है
फिर भी सुलगना धीरे धीरे
कितना कठिन है
कितना मुश्किल



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