1.
मेजपोश, बिछी मेज़ पर
गर्द की पर्त बिछी, मेजपोश।
रिश्ते बिछा, सो गए हम।
2.
जलावन की लकड़ी, घी तली,
मज़े से जलते रहे।
ज़िन्दगी आज असली रंग में।
3.
अँधेरे औ उजाले के बीच,
डूब जातें हैं, ख्वाब जहां।
डूबती कश्ती में, सवार हम।
मेजपोश, बिछी मेज़ पर
गर्द की पर्त बिछी, मेजपोश।
रिश्ते बिछा, सो गए हम।
2.
जलावन की लकड़ी, घी तली,
मज़े से जलते रहे।
ज़िन्दगी आज असली रंग में।
3.
अँधेरे औ उजाले के बीच,
डूब जातें हैं, ख्वाब जहां।
डूबती कश्ती में, सवार हम।
kya kahun samjh nahin aa raha ... aisa lagta hai kuchh observations ko aapne is tarah poetic way mein likha hai .. par mere khyaal se ye poori tarah prose toh nahin hai .. kai baar poochha aapse ki ye kavita ka kounsa roop hai ..
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Deleteकविता की मेरी समझ यही है की इसमें लय ज़रूरी है. बाकी किस तरह के काव्य रूप में इन कविताओं को रखा जाना चाहिए, ये काव्य शास्त्र के किसी अध्येता को ही बेहतर पता हो, शायद. मुझे खुद तो नहीं पता.
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