शहर बनता, बसता,उजड़ता है मेरे भीतर
शहर को नापता मै खुद की खड्ड तले.
आँख के कोटरों को चाभती काल जिह्वा
दृश्य परिधि पार से बांधती मुझको.
लम्ब, बेल,तिरछी कांटो से परखा गया मै
फातिहा पढ़ता हु मेरे इंतकाल का
धूल झरती रहे मेरे मकबरे पर
शहर कि सांस जहरीली मेरे फुफ्फुस तले.
शहर को नापता मै खुद की खड्ड तले.
आँख के कोटरों को चाभती काल जिह्वा
दृश्य परिधि पार से बांधती मुझको.
लम्ब, बेल,तिरछी कांटो से परखा गया मै
फातिहा पढ़ता हु मेरे इंतकाल का
धूल झरती रहे मेरे मकबरे पर
शहर कि सांस जहरीली मेरे फुफ्फुस तले.
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